ब्रज एवं आंचलिक

पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियों (खड़ी बोली, बाँगरू, ब्रजभाषा, कन्नौजी तथा बुन्देली) में से एक ब्रजभाषा का साहित्य में प्रयोग 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ से मिलता है, जब ब्रज प्रदेश में गौड़ीय, निम्बार्क और वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टि मार्ग के केन्द्र स्थापित हुए। हिन्दी प्रदेश के लगभग समस्त कृष्णभक्त कवियो ने अपनी रचनायें ब्रजभाषा में लिखीं, जिसके फलस्वरूप ब्रजभाषा हिन्दी प्रदेश की प्रमुख साहित्यिक भाषा बन गयी। 17वीं और 18वीं शताब्दी का हिन्दी रीति साहित्य भी ब्रजभाषा में लिखा गया। भक्तिकाल में इस सरस भाषा का कवियों ने भरपूर प्रयोग किया। ब्रजभाषा की साहित्यिक परम्परा 20वीं शताब्दी से क्षीण होती जा रही है।

'शब्दम्' ने अपने स्थापना दिवस से ही ब्रजभाषा के प्रचार-प्रसार का संकल्प लिया और अपना प्रथम कार्यक्रम इसी को समर्पित किया।

आंचलिकता

आंचलिक रचनाओं में कोई विशिष्ट अंचल व क्षेत्र या उसका कोई एक भाग व गाँव ही वर्णन का विषय होता है। आंचलिकता की सिध्दि के लिए स्थानीय दृश्यॉं, प्रकृति, जलवायु, त्योहार, लोकगीत, बातचीत का विशिष्ट ढंग, मुहावरे-लोकोक्तियाँ, भाषा व उच्चारण की विकृतियाँ, लोगों की स्वभावगत व व्यवहारगत विशेषतायें, उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यताएँ आदि का समावेश बड़ी सतर्कता और सावधानी से किया जाना अपेक्षित है। आंचलिक रचना भले ही सीमित क्षेत्र से सम्बद्ध हो, पर प्रभाव की दृष्टि से वह सार्वजनीन हो सकती है, बशर्ते रचनाकार में वैसी प्राणवत्ता व सूक्ष्म-दृष्टि हो, उसके विचारों में गरिमा और कला में सौष्ठव हो।

'शब्दम्' द्वारा आयोजित इस आंचलिक काव्य गोष्ठी में ब्रज, कन्नौजी, अवधी तथा भोजपुरी रचनाकारों को आमंत्रित किया गया।

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