हिन्दी ग़ज़ल - परम्परा और विकास
'शब्दम्' स्थापना दिवस के दूसरे दिन 18 नवम्बर, 2004 को अपराह्न 2 बजे से कल्पतरु में हिन्दी ग़ज़ल पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। प्रो. नन्दलाल पाठक की अध्यक्षता में हुई इस विचार गोष्ठी में पद्मश्री गोपाल दास 'नीरज', कवि सांसद श्री उदयप्रताप सिंह, डा. कुँअर बेचैन, श्री सोम ठाकुर, डा. उर्मिलेश शंखधर, श्री प्रदीप चौबे एवं डा.शिवओम 'अम्बर' ने भाग लेकर इसे अविस्मरणीय बना दिया।
विचार गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए डा.शिवओम 'अम्बर' ने कहा कि - ''सामान्यत: यह समझा जाता रहा है कि ग़ज़ल उर्दू से हिन्दी में आई किन्तु साहित्यिक इतिहास का सजग अध्ययन इस धारणा का प्रत्याख्यान कर देता है। वस्तुत: खड़ी बोली हिन्दी का काव्य इतिहास अमीर खुसरो की अभिव्यक्तियों के साथ प्रारम्भ होता है। लगभग सभी मान्य आलोचकों ने अमीर खुसरो को हिन्दी का प्रथम ग़ज़लगो घोषित किया है। अनेकानेक विद्वान अमीर खुसरो की निम्नांकित ग़ज़ल को ही हिन्दी की पहली ग़ज़ल मानते हैं -
जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिन्ता उतर,
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर। .............
अमीर खुसरो के बाद मतले तथा मकते के साथ बहर के अनुशासन में ग़ज़ल कबीर की अभिव्यक्तियों में मिलती है -
हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या,
रहे आज़ाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या।........
कबीरा इश्क के मतलब दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है हमन सिर बोझ भारी क्या।
फ़ारसी काव्य की भूमि ईरान से हिन्दुस्तान की ज़मीन पर पाँव रखते समय ग़ज़ल को चूँकि सन्तों की गोद मिली, उसके प्राथमिक संस्कार पूजा और प्रार्थना वाले थे। प्रीति की जिस मस्ती का ज़िक्र उसके प्रयोगकर्ताओं ने यहाँ किया वह, भक्त की अपने आराध्य के ध्यान की मस्ती थी। ग़ज़ल ने अपने पाँवों में विलासिता के घुँघरू बाँधकर नहीं, हाथों में कीर्तन की खड़ताल लेकर हिन्दुस्तान में यात्रा प्रारम्भ की।''
डा. उर्मिलेश शंखधर (अब स्वर्गीय) ने कहा कि - ''यों सातवें दशक से पूर्व भी हिन्दी के कवि ग़ज़लें कह रहे थे, लेकिन उनकी ग़ज़लें उर्दू ग़ज़लों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं थीं। ग़ज़लियत को सुरक्षित रखते हुए स्व. रंग ने अपनी ग़ज़लों को नए कथ्य और नई संवेदनाओं से भरकर हिन्दी ग़ज़ल को चर्चा में लाने का काम किया था। स्व. दुष्यन्त कुमार ने नई कविता का पल्ला छोड़ अपनी अनुभूतियों को ग़ज़ल के माध्यम से अभिव्यक्त करने का जो निर्णय लिया, वस्तुत: हिन्दी ग़ज़ल की पहचान और प्रतिष्ठा के लिए यह एक युगान्तकारी घटना थी। आपत् काल से बेहाल पाठकों को इन ग़ज़लों में अपने मन का गुबार फूटता-सा दिखा। यही कारण है कि दुष्यन्त कुमार रातों-रात समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के प्रवर्तक रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। श्री नन्दलाल पाठक ने जिज्ञासा की कि ग़ज़ल को ग़ज़ल कहें, या हिन्दी ग़ज़ल कहें?
इसके उत्तर में श्री उदयप्रताप सिंह ने कहा कि- ''यह कोई बड़ा प्रश्न नहीं है, जिस पर बहसें हों। हिन्दी ग़ज़ल से मतलब हिन्दी के कवियों द्वारा लिखी या कही ग़ज़ल है। जैसे उर्दू ग़ज़ल, उर्दू कहानी, बंगला नाटक, उड़िया कविता, मराठी ग़ज़ल। चूँकि ग़ज़ल अरबी-फारसी से होती हुई उर्दू में और फिर हिन्दी में आई है, इसलिए इसे भाषात्मक पहचान के लिए हिन्दी ग़ज़ल ही कहा जाये।'' हिन्दी ग़ज़ल की भाषा शुध्द तत्सम् शब्दों वाली ही हो, इस बात को मैं नहीं मानता। ग़ज़ल गीत से अधिक कोमल विधा है और इसकी लोकप्रियता का मूल आधार भाषा की सहजता ही रहा है। यह केवल पठनीय विधा न होकर श्रव्य विधा भी है और अपने संक्षिप्त कलेवर में रागात्मक अनुभूतियों एवं युगीन संवेदनाओं की नादात्मक अभिव्यक्ति के कारण सहज ग्राह्य एवं सहज स्मर्णीय बनने की क्षमता रखती है, इसलिए इसकी भाषा पुस्तकीय न होकर जीवन और व्यवहार से जुड़ी होनी चाहिए।''
मुम्बई से पधारे प्रो. नन्दलाल पाठक ने कहा कि - ''ग़ज़ल अब हिन्दी गीतिकाव्य का महत्वपूर्ण अंग बन गई है।
यह मुक्तक काव्य का युग है और ग़ज़ल मुक्तक में मुक्तक है। ग़ज़ल का विश्वास भाषणबाज़ी में नहीं है, वह तो मौन मर्मस्पर्श है। उर्दू ग़ज़ल के प्रतीक मिथक, संकेत और संदर्भ अधिकांश विदेशी हैं। उनके बारे में हमारी समझ अधूरी है। आवश्यकता है उर्दू ग़ज़ल से प्रेरणा लेकर भारतीय प्रतीकों, परम्पराओं और मिथकों को जीवन्त करने की, माँजने की और उनकी सांकेतिकता बढ़ाने की।
पद्मश्री गोपालदास 'नीरज' ने कहा कि - ''ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू भाषा की अत्यन्त लोकप्रिय विधा है। ग़ज़ल जो कि कभी ज़ुल्फों के पेचों खम और घुँघरुओं की थिरकन में बहुत लम्बे अरसे तक कैद रही, वो अब उनसे पूरी तरह मुक्त होकर भीड़ भरे चौराहों पर आकर खड़ी हो गयी। आज की ग़ज़ल राजनीतिक स्वार्थपरता, संकीर्णता, मूल्यहीनता, अराजकता, भ्रष्टाचार और आतंकवाद आदि को बड़े ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त कर रही है। कवि सम्मेलनों और मुशायरों में आज ग़ज़ल बहुत सुनी और सराही जाती है। शिक्षित, अशिक्षित और सामान्य जन के पास पहुँचने के लिए भाषा का जो संस्कार और गेयता का जो कौशल वांछनीय है, वो सब आज की ग़ज़ल हमें दे रही है। आज की ग़ज़ल उस ख़ाई को समतल करने के लिए भाषा का एक ऐसा स्वरूप गढ़ रही है जो हिन्दी और उर्दू से अलग प्रेम की भाषा कही जा सकती है।
श्री सोम ठाकुर ने कहा कि - ''हिन्दी ग़ज़ल के अपने अस्तित्व के निर्माण हेतु यह बहुत आवश्यक होगा कि वह उर्दू ग़ज़ल की अपेक्षाओं को हिन्दी भाषा के संस्कार में ढालकर नागरी ग़ज़ल को चुम्बकत्व प्रदान करने की शक्ति उत्पन्न करे, जो सम्प्रेषण के लिये आवश्यक है। साथ ही कथ्य के स्तर पर भी ऐसा परिवर्तन करना होगा, जिससे लगे कि नागरी ग़ज़ल ने पुरानी सीमाओं को तोड़ा है और कथ्य को अधिक सम्पन्नता प्रदान की है।''
डा. कुँअर 'बेचैन' ने गोष्ठी का समापन करते हुए कहा कि अमीर खुसरो के बाद बली एवं कुली कुतुबशाह ने दखिनी हिन्दी में ग़ज़लें कहीं। वैसे तो ग़ज़ल, ग़ज़ल ही है। फिर भी कभी-कभी सुविधा के आधार पर भी नाम दे दिये जाते हैं। जैसे गीत को दिया गया। हिन्दी साहित्य के हर युग में कवियों ने ग़ज़लें कहीं। श्री भारतेन्दु जी 'रसा' उपनाम से ग़ज़लें लिखते थे। ग़ज़ल लेखन में क्रान्तिकारी बदलाव श्री दुष्यन्त कुमार ने किया, जिनके नये प्रतीक भाषा और कथ्य ने केवल हिन्दी के ही नहीं, वरन् उर्दू के शायरों को भी प्रभावित किया और आज हिन्दी ग़ज़ल सामाजिक विषमताओं, विद्रूपतऑं और आक्रोश को भी अपना विषय बना रही है।
गोष्ठी के अन्त में 'शब्दम्' अध्यक्षा श्रीमती किरण बजाज ने सभी के प्रति आभार प्रकट किया और कहा कि - 'आज की गोष्ठी बहुत विचारोत्तेजक थी। समय-समय पर 'शब्दम्' ऐसे आयोजन करता रहेगा।'
हिन्दी ग़ज़ल के चुने हुये शेर -
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही।
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
- दुष्यन्त कुमार
मुझ को उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है।
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।
- नीरज
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरुर कम होगी।
किसी के पाँव से काँटा निकाल कर देखो।
- डा. कुँअर बेचैन
बेटियाँ जब से बड़ी होने लगी हैं मेरी।
मुझको इस दौर के गाने नहीं अच्छे लगते॥
- उर्मिलेश
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा।
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है॥
- राजेश रेड्डी
शाम होने को है बेचारा कहाँ जायेगा?
बूढ़े बरगद से पपीहे को उड़ाते क्यों हो।
- उदय प्रताप सिंह
कैसी मुश्किल में पड़ गया हूँ मैं।
अपने दर्पण से लड़ गया हूँ मैं॥
- सोम ठाकुर
ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है।
ये किसी के ऑंसुओं से तर नहीं होता॥
- डा. शिवओम 'अम्बर'
उमड़ते ऑंसुओं को ऑंख ही पी ले तो बेहतर है।
हमेशा ऑंसुओं की पहुँच में ऑंचल नहीं होता॥
- प्रो. नन्दलाल पाठक