
27 मार्च 2005 को, हिन्द लैम्प्स परिसर स्थित, कल्पतरु में आयोजित ''संस्कृत
में होली'' विषय पर अपने विचार प्रगट करते हुये डा. इच्छाराम द्विवेदी ने, संस्कृत साहित्य से इसे प्रमाणित किया।
इस गोष्ठी की गरिमामयी अध्यक्षता, परमपूज्य भागवत भास्कर श्रीकृष्णचन्द्र जी शास्त्री 'ठाकुर जी' ने की जिन्होंने कहा कि यद्यपि भागवत में कोई होली का वर्णन नहीं है अपितु रसों के समूह रास का वर्णन है और कालान्तर में वहीं से प्रेरणा लेकर असंख्य कवियों ने होली रस-धार बहायी।
इस गोष्ठी के अन्य विद्वान् - डा. रमाकान्त शुक्ल ने अपने शोधपूर्ण वक्तव्य में बताया कि 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली', 'कुमार सम्भव' सभी में रंग का वर्णन आया है। कालिदास रचित 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। 'भारवि', 'माघ' सभी ने वसन्त की खूब चर्चा की है। 'पृथ्वीराज रासो' में होली का वर्णन है। महाकवि सूरदास ने तो वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनायें की हैं।
गोष्ठी के प्रारम्भिक वक्तव्य में डा. द्विवेदी ने अग्नि के सन्दर्भ में उपयोगिता की दृष्टि से होली का उल्लेख किया। 'भविष्य पुराण' तथा अन्य ग्रन्थों के उद्धरणॉं से उन्होंने होली उत्सव के उद्भव और विकास की लम्बी परम्परा पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि असंस्कृत एवं अपरिष्कृत समाज को सांस्कृतिक एवं परिष्कृत बनाना ही होली महोत्सव का प्रयोजन है।
अन्त में श्री ठाकुर जी के मुखारविंद से निकले अमृत रस के परिवेशन ने अध्यात्म रस की गंगा बहा दी।
सूर रचित होली के दो पद -
नन्द नन्दन वृषभान किशोरी राधा मोहन खेलत होरी।
श्री वृन्दावन अति ही उजागर वरन-वरन नवदम्पति भोरी।
श्यामा उतय एकल ब्रज वनिता इतै श्याम रस रुप लखौरी।
कंचन की पिचकारी छूटत छिरकत ज्यौ सचु पावै गोरी।
झुंडन जोरि रहि चन्द्रावली गोकुल में कुछ खेल मचौरी।
"सूरदास" प्रभु फगवा दीजै चिरजीवौ राधा बरजोरी।
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