'आध्यात्मिक काव्य गोष्ठी'
इस विषिष्ट काव्य गोष्ठी का आयोजन 12 अप्रैल, 2005 को श्री कृपाशंकर शर्मा 'शूल' की अध्यक्षता में 'शब्दम्' के सौजन्य से, शिकोहाबाद नगर में किया गया।
गोष्ठी के प्रारम्भ में श्री मंजर-उल-वासै ने भगवान् शिव के निराकार एवं साकार स्वरूप की उपासना करते हुए मानव जीवन की महत्ता की विषद व्याख्या एक सुन्दर निबन्ध पढ़कर की। तत्पश्चात् कवि-गोष्ठी का दौर प्रारम्भ हुआ। श्री राजीव शर्मा ने गुरु की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए अपनी रचना इन भावों में प्रस्तुत की ''गुरु चरणों की रज लगाके मस्तक, सीखा है मैंने चलना, जबसे खुले ज्ञान के चक्षु, सीखा है चिन्तन करना, कितना दुखित रहा ये हृदय कितनी इसमें कसक रही, फिर भी गम के ऑंसू पीकर, सीखा है मैंने हँसना''। श्री सुनील यादव ने जीवन के विकार को दूर करने के लिए ईश्वर को इन भावों में देखा, ''हे ईश्वर, करके मुझे अस्तित्वहीन, कर लो मुझे तुम अपने में विलीन, फैलाकर अपना ज्ञानमय प्रकाश, मिटा दो मेरा अहंकार, द्वेष,र् ईष्या और इस जीवन के विकार''।
श्री ओमप्रकाश बेवरिया ने जाति-पाँति पर प्रहार करते हुए तथा हर हाथ को काम मिलने की दुहाई देते हुए कहा कि ''जाति पांति धर्म का न मान होना चाहिए, आदमी को आदमी का ज्ञान होना चाहिए, निडर होकर देशवासी सब दिशाओं में रहे, हाथ जो खाली है उनमें काम होना चाहिए।'' श्री विजय चतुर्वेदी ने ईश्वर को समर्पित अपनी रचना ''थक उठे दो नयन विह्नल, राह तेरी देखते, मौन है दो अधर निष्चल, राह तेरी देखते।'' को प्रस्तुत किया। सांस्कृतिक मूल्यों में हो रही गिरावट को इंगित करते हुए श्री उत्तम सिंह राठौर ने अपने भावों को इन रूपों में व्यक्त किया ''उच्च दर्शन से प्रदर्षन हो गया। दूरदर्शन अंगदर्शन हो गया। मूल्य इतने गिर गए अब संस्कारों के, वासना की आग ही अब प्रेमदर्शन हो गया।''
डा. ध्रुवेन्द्र भदौरिया ने प्रभु को समर्पित अपने मन को इन शब्दों में व्यक्त किया ''ओला सागर में गिरा, गिरकर हुआ विलीन, बिन्दु समाया सिन्धु में, दीनबन्धु में दीन।'' वहीं श्री बैजनाथ सिंह 'रघु' ने अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये ''कुछ भी करके जतन, आजा करने मिलन। हम तो आबाद कर देंगें तेरा रुहानी चमन।'' इसी सन्दर्भ में कृपाशंकर शर्मा 'षूल' ने कहा ''नाम रुप से परे अनादि अनंत अगोचर, एकोहम बहुस्याम भाव साकार सगोचर।'' वहीं मंजर-उल-वासै ने अपनी ग़ज़ल ''कतरा कुछ है दरिया कुछ, बन्दा कुछ है मौला कुछ'' प्रस्तुत की।
श्री राजीव शर्मा 'आधार' की एक कविता :-
आ गया फिर बहुप्रतिक्षित पल विदा का,
पर विदा देते हुए, रोये बहुत हम॥
राह में हम भी चले सबकी तरह।
किन्तु अवरोधक बने काँटे मिले।
हम महक पावन लुटाते ही रहे,
कंटकों में भी गुलाबों से खिले।
जागते ही काँपकर मन रह गया।
सब सपन झूठे हुए, सोये बहुत हम॥
श्री मंजर-उल-वासै द्वारा प्रस्तुत की गयी युगलिका के अंश :-
क़तरा कुछ है, दरिया कुछ
बन्दा कुछ है, मौला कुछ।
अन्त नहीं है इच्छाओं का
पर साँसों की है सीमा कुछ।
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