हिन्दी ग़ज़ल
ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ है औरत से प्रेम की बात करना। इस अर्थ ने ग़ज़ल को भाषा की कोमलता, सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और शालीनता दी है। उर्दू कविता में ग़ज़ल का वही स्थान है, जो हिन्दी कविता में गीत का। ग़ज़ल का शेर अपने में पूर्ण होता है। इसके दो बराबर के टुकड़े होते हैं, जिनको मिसरा कहते हैं। दो मिसरों में पूरी बात आ जाती है।यह संक्षिप्तता आधुनिकयुग के अनुकूल भी है। 'रदीफ़' और 'काफ़िया' ग़ज़ल के शेरों को जोड़ते हैं। फिर भी कथ्य ही दृष्टि से हर शेर स्वतंत्र होता है।
''सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसितां हमारा॥''
इस शेर में 'हिंदोस्ताँ' और 'गुलसितां' काफ़िया और 'हमारा' रदीफ़ है। काफिया बदलता रहता है और रदीफ़ चलता रहता है।यह शर्त हिन्दी ग़ज़ल पर भी लागू होती है।
हिन्दी ग़ज़ल के प्रचार के दो प्रमुख कारण हैं। छन्दहीन बुध्दिवादी कविता की शुष्कता की प्रतिक्रिया और गीत के हर छन्द में एक ही भावधारा का विकास करने की शर्त। राग और अनुराग ग़ज़ल का तन और मन है। छन्दहीन ग़ज़ल हो ही नहीं सकती। गेयता ग़ज़ल की जान है। एक गीत का हर पद मुखड़े या टेक के कथ्य का विकास है। ग़ज़ल का हर शेर स्वतंत्र कथ्य है। गीत मुक्तक है तो ग़ज़ल मुक्तक में मुक्तक। ग़ज़ल लिखना भाषा और भाव का शिल्प है। उर्दू में ग़ज़ल की परम्परा है। हिन्दी में कुछ कवियों ने कुछ ग़ज़लें लिखी हैं। भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, दिनकर आदि ने कुछ ग़ज़लें जरूर लिखीं, पर हिन्दी में ग़ज़ल बार-बार आ-आ कर लौट गई। दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों की सफलता ने हिन्दी में ग़ज़ल की धारा ही बहा दी। फिर भी अधिकांश लेखक उर्दू की नकल पर ग़ज़ल लिखते रहे।
उर्दू भारतीय भाषा है, किन्तु उर्दू ग़ज़ल के अधिकांश प्रतीक और मिथक विदेशी हैं। जैसे 'ज़न्नत', 'जहन्नुम', 'महशर', 'साकी', 'सहारा', 'क़यामत' इत्यादि। हम इनसे सुपरिचित नहीं हैं। इसलिए हम उर्दू ग़ज़ल का पूरा रस नहीं ले पाते। हिन्दी ग़ज़ल में भारतीय प्रतीकों और मिथकों के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भारतीय सामग्री का प्रयोग हिन्दी ग़ज़ल को नवजीवन दे सकता है। आवश्यकता है उर्दू की नकल करने की जगह उर्दू से प्रेरणा लेकर हिन्दी ग़ज़ल को स्वतंत्ररूप देने की, हिन्दी भाषा को अरबी, फारसी के व्याकरण से मुक्त करने की। हमें शब्द उधार लेने हैं, व्याकरण नहीं।
- नन्दलाल पाठक