कार्यक्रम - बारहवाँ ग्रामीण कवि सम्मेलन

दिनांक - 10 जून 2018

ग्राम - दतेई्र (भौंरे बाले मंदिर के पास)

अध्यक्षता - श्री उदयप्रताप सिंह

संचालन - डॉ. ध्रुवेन्द्र भदौरिया

आमंत्रित कविगण - शैलेन्द्र ‘मधुर’ (इलाहाबाद, उ.प्र.), अशोक ‘अज्ञ’ (वृंदावन, उ.प्र.), राधेश्याम ‘भारती’ (हनुमान गंज, उ.प्र.)

माॅ बाप के लिए हैं, संसार बेटियाँ...............................
शब्दम् द्वारा आयोजित बारहवाँ ग्रामीण कवि सम्मेलन का आयोजन एटा के ग्राम दतेई में आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में लगभग 800 से 1000 श्रोताओं ने काव्यपाठ का का आनन्द लिया। काव्य पाठ का शुभारम्भ करते हुए अशोक ’अज्ञ’ ने अपने काव्य पाठ में सुनाया कि होली हो या दीवाली, त्यौहार बेटियाँ। भाई के हाथ राखी, का प्यार बेटियाँ। कुदरत का एक अनुपम, उपहार बेटियाँ। माँ बाप के लिए हैं, संसार बेटियाँ। इस कविता ने श्रोताओं को खूब सराहा।

पीपल के पेड़ की छांव में काव्यपाठ करते हुए शैलेन्द्र ‘मधुर’ ने कहा कि सोचिए बांसुरी के सुरो पर जरा, चित्र राधा का मन में उभर आएगा, जब भी कान्हा की यादों में जाएंगे हम, मोर का पर हवा में उतर आएगा....। काव्य पाठ से श्रोताओं को मनमुग्द कर दिया। इसी क्रम में राधेश्याम ‘भारती’ ने अपनी रचनाओं का काव्यपाठक करते हुए कहा कि अब न तुलसी का चैरा ना आंगन दालान, देशी मैल विदेशी साबुन परदेशी पकवान तुम्हीं बतलाओं कृपा निधान और अब क्या होगा भगवान.......। जैसी हास्य कविताओं नेे श्रोताओं को खुब हसाया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे उ.प्र. हिंन्दी संस्थान के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष उदयप्रताप सिंह ने काव्यपाठ करते हुए कहा कि आजादी का सूरज चमका, शहरों और आकाश में, गाॅव पड़े हैं अभी गुलामी के इतिहास में.....। इसीक्रम में शब्दम् अध्यक्ष किरण बजाज द्वारा मुम्बई से भेजे गए अपने काव्यमय संदेश में पढ़ा गया कि सिर्फ ख्याबों, सिनेमा, चुटकुलों और भद्दे मजाकों की, हिन्दी नहीं चाहिए, ‘हमें चाहिए -रोजगार, रोजी-रोटी और काम-काज की हिन्दी। हमें चाहिए - किताब, दुकान एवं संसद में हिन्दी............।

कार्याध्यक्ष, महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी, मुम्बई एवं शब्दम् उपाध्यक्ष नन्दलाल पाठक जी ने अपने मुम्बई से भेजे अपने संदेश में कहा कि ‘यह नहीं है का दीनहीन मलीन भारत, सर उठाए है खड़ा अब विश्व में स्वाधीन भारत....। स्थानीय कवि जालिम सिंह ‘दास’ ने भी अपनी कविता का काव्यपाठ किया।

ग्रामसमिति से विनेश कुमार चैहान, मुन्नालाल चैहान, धीरेन्द्र सिंह चैहान, उमेशपाल सिंह चैहान, लोकप्रिय उपाध्याय का ग्रामीण कवि सम्मेलन में विशेष सहयोग रहा। संस्था द्वारा ग्रामीणजनों को तम्बाकू से होने वाली हानियों तथा उससे बचने के उपायों के बारे में विस्तार से बताया।

फोटो परिचय-

काव्यपाठ करते कवि अशोक ‘अज्ञ’

काव्यपाठ करते कवि शैलेन्द्र ‘मधुर’

काव्यपाठ करते कवि राधेश्याम ‘भारती’

संचालन करते कवि डाॅ. धु्रवेन्द्र भदौरिया

काव्यपाठ करते शब्दम् उपाध्यक्ष श्री उदयप्रताप सिंह

काव्यपाठ का आनंद लेते श्रोतागण।

काव्यपाठ का आनंद लेते श्रोतागण।

अशोक अज्ञ का परिचय

अशोक अज्ञ का जन्म 25.2.1957 में वृन्दावन में ही हुआ] शिक्षा बी.एससी. तक रही शुरू से ही साहित्य के प्रति लगाव रहा सन 1974 से लेखन कार्य प्रारम्भ किया खड़ी बोली, ब्रजभाषा में गीत गजल छंद कविताऐं लिखी साहित्य मंडल श्री नाथ द्वारा से ब्रजभाषा विभूषण से सम्मान प्राप्त किया तथा इसके अलावा अनेकों मंचों पर सम्मान मिला।

कविताएँ -

1. ब्रजभाषा रचना नारी सशक्तिकरण घनाक्षरी छंद भूल मत करियो ढिठाई ब्रजनारिन सौं, साँची जान सिगरे हू लत्ता फार डारिंगी। नगन घुमावैं कारौ पीरौ करि जामैं फेर घेर घेर चारौं ओर गाम के निकारिंगी। गालन पै मार मार गुलचा हजार बार, पोत पोत कालिख सौं थूथरौ बिगारिंगी। अंग अंग बाजै जैसै बाजत मृदंग चंग, नानी याद आवै ऐसौ आरतौ उतारिंगी।

2. होली हो या दीवाली, त्यौहार बेटियाँ। भाई के हाथ राखी, का प्यार बेटियाँ। जिस दिन पिया के घर को, डोली में हो विदा। आँखों मे आँसुओं का, अम्बार बेटियाँ। कुदरत का एक अनुपम, उपहार बेटियाँ। इस सृष्टि का समूचा, आधार बेटियाँ। सुख दुख में साथ देतीं, हों सामने खड़ी। माँ बाप के लिए हैं, संसार बेटियाँ। घर के चमन को करतीं गुलजार बेटियाँ। संसार में बहुत सी, फनकार बेटियाँ। कन्या को भ्रूण हत्या से, अब बचाइए। बेटों से अधिक करती उपकार बेटियाँ। हीरे हैं पुत्र हीरों का हार बेटियाँ। सौंदर्य है जहाँ का शृंगार बेटियाँ। नजरों का फर्क अपने दिल से निकालिए। करती हैं स्वप्न सारे साकार बेटियाँ। हर जंग में धनुष की टंकार बेटियाँ। नागिन सी मारती हैं फुंकार बेटियाँ। बुजदिल इन्हैं समझना है भूल आपकी। भरती हैं शेरनी सी हुँकार बेटियाँ। हाथों में जब उठातीं तलवार बेटियाँ। दुर्गा का बनके आतीं अवतार बेटियाँ। धरती भी काँप उठती बहता है जब लहू। महिषासुरों का करतीं संहार बेटियाँ।

नाम - शैलेन्द्र श्रीवास्तव ‘मधुर’

पिता का नाम - स्व. सीताराम श्रीवास्तव

जन्मतिथि - 22 जून 1970

वर्तमान पता - कालिन्दीपुरम्] जागृति चैराहा] इलाहाबाद

शैक्षिक योग्यता - बी-एम-

पवैवाहित स्थिति -विवाहित % पत्नी- आभा श्रीवास्तव

राष्ट्रीयता - भारतीय

लिंग - पुरूष

भाषा का ज्ञान - हिन्दी, अंग्रेजी, भोजपुरी

साहित्यिक अनुभव -30 वर्ष, कविता एवं लेखन वर्ष 1985 से

मुख्य कृति -हम भी हैं अदालत में, नमन, प्रकाशन लखनऊ द्वारा उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा अनुदानित

प्रसिद्धि - गीतकार, ग़ज़लकार

उपाधि एवं सम्मन : नवगीतकार सम्मान (हैदराबाद) अीत गौरव सम्मान, गंगा गौरव सम्मान, काव्य श्री सम्मान, साहित्य श्री सम्मान, खामोश गाजीपुरी सम्मान, गीता श्री सम्मान, श्री संगम गौरव सम्मान, युवा साहित्य सम्मान, एकेडमी द्वारा साहित्य सम्मान।

1. सोचिए बांसुरी के सुरो पर जरा] चित्र राधा का मन में उभर आएगा, जब भी कान्हा की यादों में जाएंगे हम, मोर का पर हवा में उतर आएगा। मन में गोकुल की सकरी गली देखिए] घर से राधा निकल कर चली देखिए. कैसे कांटो से खुद को बचाती है वो, खिल रही जो कली वो कली देखिए, पायले गुनगुनाने लगी घाट पर, अब नदी का भी चेहरा संवर जाएगा।चित्र, कंकड़ी मारकर गागरी फोड़ दी, हड़बड़ी में हरी डाल ही तोड़ दी, प्यार की हर कथा जब लगी सूखने, हमने धीरे से पूरी कथा मोड़ दी, है कथा प्यार के रस में भीगी हुई, यह कथा जो भी बाचेगा तर जाएगा चित्र राधा का, है कदंबो मन थोड़ा डरने लगा, झाड़ियों का बदन भी सिहरने लगा, फिर से जमुना में ऊंची तरंगे उठी, डूब जाने का मन फिर से करने लगा, बांसुरी जिस दिशा में भी बजने लगे, मन किसी का कहीं हो उधर जाएगा।

गीत

अब न राजा रहे] अब न रानी रही, बस किताबों में बिखरी कहानी रही, अब न, बादलों में तुम्हारी ही तस्वीर है, ले गई ये हवा मेरी तकदीर है, शर्त थी हर जगह, हर सदी में मिले] ताल में हम मिले, हम नदी में मिले, ताल तो पट गए, सब कमल हट गए, अब नदी में नहीं वो रवानी रही, अब न राजा रहे, गुनगुने दिन न जाने कहां खो गए, नीद में हम नहीं] स्वप्न ही सो गए, शर्त थी बाग में, फूल में हम मिले, गलतियों में मिले, भूल में हम मिले, भूल भी हो गई, गंध भी बो गई, पर न भूलो में वह रात रानी रही, अब ना राजा रहे। रेशमी रात थी एक बरसात की, याद ताजा है अभी मुलाकात की, शर्त थी बूद में, धार में हम मिले, जीत में हम मिले, हार में हम मिले, वक्त भी आ गया, मेघ भी छा गया, पर अंगूठी की खोई निशानी रही, अब न राजा रहे, अब न रानी रही।

हम भी हैं अदालत में, गजल संग्रह प्रकाशित हुई, 2017 में।

नाम- राधेश्याम भारती

जन्म -इलाहाबाद, 2 दिसम्बर 1949

शिक्षा - स्नातक, इलाहाबाद विश्व विद्यालय

व्यवसाय - टेलीकाॅम विभाग से सेवा निवृत्त

पता - अजबैया, पोस्ट- हनुमानगंज, इलाहाबाद ;उ.प्र.

परिवर्तन

1. अब न कहीं तुलसी का चैरा ना आंगन दालान देशों मैल विदेशी साबुन परदेशी पकवान तुम्ही बतलाओं कृपानिधान और अब क्या होगा भगवान शुभ कामों में अब वो घी का दी कहां जलता है जब तो मोमबत्तियां जलाकर जनमदिवस मनता है कितने भोले लोग थे कितने सीधे सादे थे बारातों में भी कितनी सादगी से जाते थे अब तो अस्पताल भी सजकर जाते हैं लोग लुगाई रोगी देखने नहीं, देने जाते हैं बधाई तब शिक्षा इंसान बनाती थी, अब बनते साहब चमक रहा कैरिअर मगर कैरेक्टर एकदम गायब पीपल से अब अधिक कुकुरमुत्तों का है गुणगान तुम्ही बतलाओं कृपा निधान और अब क्या होगा भगवान तब की बहू नइहर से लेकर संस्कार आती थी सासुर के आंगन की शोभा में निखार लाती थी अब की बहू नइहर से लेकर नई कार आती है तभी तो सासुर में अपनी सरकार चलाती है देवरानी जेठानी के संग बिगुल बजाती है भाई-भाई को बाली सुग्रीव बनाती है तब पिछड़े थे अब अपनी क्या खूब सफलता है एसी में रहते दिमाग में हीटर जलता है पश्चिम की बयार ने खाली भारत की पहचान तुम्ही बतलाओ कृपानिधान------ जितना दाम था जूते का अब उतना फीते का बोते काली मिर्च तो उगता पेड़ पपीते का तब बच्चा भी रोये तो हम दौड़ के जाते थे उसे उठाकर उसकी माॅ को डांट लगाते थे अब तो मियां बीबी पड़ोस के करे अगर कोहराम हमें लगे, आ रहा है टीवी पर बढ़िया प्रोग्राम हर सुख सुविधा त्याग के पहले बनते थे साधू अब हर सुख सुविधा की खातिर बनते है साधू जकड़ लिया है धर्म को ऐसा धंधे का दलदल वायुयान में गुरूजी हम माला लेके पैदल इन्टरनेट में समा गये सब रामायन कुरआन तुम्ही बतलाओ कृपानिधान

होटल का बैरा

2. वो बोला कि क्या लाऊ बाबूजी बोलो खड़ा सामने नीची नज़रे किये था पिये दर्द था जैसे हर हर्फ उसका वो बिरवा था एक गम का बरगद लिये था थी आंखों के कोरों में दो बुंदें अटकी वे बूंदे ही सब दासतां कह रहीं थीं। वो बारह बरस में कमेरा बना है हैं छोटी उमर घर सबसे बड़ा है कभी उसका मालिक कहां पूछता है तू आया कहां से तेरा हाल कैसा बचाकर के घर भेजता कितना पैसा यही पूछता काम कितना किया रे अभी तक यही इतना किया रे वो खाता है खाता है होटल की जूठन वो खाता है थप्पड़ बहन माॅ की गाली कमर तोड़ मेहनत है मक्कार पाजी ये सब सह न ले तो वो आखिर करे क्या उसे याद है मोतियाबिन्द का घिसटता हुआ बाप लकवे का मारा फटा दस जगह से बहन का दुपट्टा दवाई के बिन छोटा भाई मरा था सुबक लेता है सबकी नजरें बचाकर क्या उसका नहीं हक़ है ताजा हवा पर पसीना है जिस जिन्दगी की कहानी है गंगा का जल उसकी आंखों का पानी कोई बद के इन आंसुओं में नहा ले कोई एक कांधा वो सर जिसपे रख दे कोई हाथ हम दर्द दे दे सहारा कहीं दुख की दरिया का हो तो किनारा वो बारह बरस में कमेरा बना है हैं छोटी उमर घर का सबसे बड़ा है।

 

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