''जुलाहे की चदरिया पर ज़री गोटा नहीं होता....''
कबीर जयन्ती कबीर की 607वीं जयन्ती पालीवाल महाविद्यालय में 22 मई 2005 को विचार गोष्ठी के रुप में मनायी गयी जिसका विषय था - ''कबिरा खड़ा बाजार में''।
इस अवसर पर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री हरिओम मित्तल ने कहा कि ''कबीर की रचनाओं में आर्थिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों की भरमार है और उन्होंने बड़े सरल ढंग से लोकभाषा में अपनी बात कही है।'' डा. श्यामवृक्ष मौर्य ने 'कायावीर को कबीर' कहा। वहीं डा. कप्तान सिंह ने कबीर वाणी को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सभी समस्याओं के हल के लिए उपयुक्त बताया।
शायर शकील वारसी ने अपनी गज़ल '.... किसी दौर में, किसी मुल्क में कोई उसके जैसा हुआ नहीं, जो किसी मज़हब का न हो सका पर किसी मजहब से जुदा नहीं.......' पढ़, कबीर को अभिव्यक्ति दी। डा. ध्रुवेन्द्र भदौरिया ने पढ़ा - 'हे ढाई आखर के पंडित, सन्तों की शुचिता से मंडित, तुम औघड़ बन पी गये पीर, युग बुला रहा आओ कबीर......'।
श्री विष्णु स्वरूप मिश्र ने अपना कबीर पन्थी गीत '.... रंग-बिरंगे खेल-खिलौने बचपन के सब छूट गये, कुछ तो जान-बूझकर तोड़े, कुछ अनजाने टूट गये.......' प्रस्तुत कर श्रोताओं का मन मोह लिया। श्री गौरव यादव ने अपनी व्यंग रचना प्रस्तुत की। श्री महेशचन्द्र मिश्र ने पढ़ा '...सारे आडम्बर का पर्दाफाश किया..... पाखण्डी धर्म के ठेकेदारों को बेनकाब किया.....' प्रो. आर.पी. जैन ने अपनी काव्य रचना प्रस्तुत की तथा श्री मंजर-उल-वासै ने कबीर की व्याख्या करते हुए उनके बहुआयामी व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला। अध्यक्ष डा. ओ.पी. सिंह ने अपनी गज़ल पढ़ी।
संगोष्ठी का समापन, वरिष्ठ कवि नारायण दास 'निर्झर' की दार्शनिक कविताओं से हुआ। उनकी इन पंक्तियों ने ''ये जैसी भी निर्झर, ओढ़ ले कबिरा की चादर को.... जुलाहे की चादर पर ज़री गोटा नहीं होता.....'' इस विचार गोष्ठी को अपनी पूर्णता प्रदान की।
कबीर जयन्ती के अवसर पर पढ़ी गयी वरिष्ठ कवि श्री नारायण दास 'निर्झर' की गज़ल :-
''कुटी में सन्त की महलों सा परकोटा नहीं होता
यहाँ पर शाह-सूफी में बड़ा छोटा नहीं होता।
जमाने में भले दिखता हो अन्तर आप में, हममें,
यह मन्दिर है यहाँ कोई खरा-खोटा नहीं होता।
तिज़ारत कीजिए यदि चाह हो तुमको मुनाफे की
मोहब्बत के जुनूँ में कुछ नफा टोटा नहीं होता।
परीक्षा जिन्दगी की पास करना है बहुत मुश्किल
कि इसमें एक भी उत्तर रटा घोटा नहीं होता।
ये कैसे सन्त हैं जिनसे न माया छूट पाती है
जो सच्चे सन्त हैं उन पर तवा लोटा नहीं होता।
ये जैसी भी है ''निर्झर'' ओढ़ ले कबिरा की चादर को,
जुलाहे की चदरिया पर ज़री गोटा नहीं होता।''
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