'काव्य बेला'

'शब्दम्' स्थापना दिवस के अवसर पर 18 नवम्बर 2004 को हिन्द लैम्प्स परिसर में हिन्दी के प्रतिष्ठित कवियों श्री गोपालदास 'नीरज', श्री नन्दलाल पाठक, श्री उदयप्रताप सिंह, श्री सोमठाकुर, डॉ. कुँअर 'बेचैन', डॉ. उर्मिलेश 'शंखधर', डॉ.शिवओम 'अम्बर' तथा श्री प्रदीप चौबे की गरिमामयी उपस्थिति में 'काव्य बेला' का आयोजन किया गया।

'शब्दम्' की अध्यक्षा, श्रीमती किरण बजाज ने सरस्वती विग्रह पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। आमन्त्रित कवियों का श्री शेखर बजाज ने अभिनन्दन कर काव्य बेला को गति प्रदान की।

कवि सोम ठाकुर की हिन्दी वन्दना ने 'शब्दम्' के भावार्थ को अभिव्यक्ति दी। सांसद कवि श्री उदयप्रताप सिंह ने अपनी हिन्दी गज़लों से वाह-वाही लूटी।

'....जिसकी धरती-चाँद-सितारे-आसमाँ, उसका मन्दिर तुम बनाओगे सोचो जरा, वो अजर है अमर है सबके घर-घर में बसा है, उसको मन्दिर की जरूरत......सोचो जरा...' के बाद उन्होंने पढ़ा ''हर अमावस को दीवाली में बदल सकता है, जो एक से दूसरा दीपक जला ले जायेगा.....''।

डॉ. उर्मिलेश 'शंखधर' ने जिन्दगी की सच्चाई को कुछ यूँ बयान किया। ''बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिये, जिन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिये। कितने दिन जिन्दा रहे इसको न गिनिये साहिब, किस तरह जिन्दा रहे इसकी शुमारी रखिये..'', ''रिश्तॉं की भीड़ में वो तन्हा खड़ा रहा, नदियाँ थीं उसके पास वो प्यासा खड़ा रहा।''

कवि डॉ­. कुँअर 'बेचैन' कुछ नये तेवर में दिखायी दिये '....खनक उठती है टकराकर भी उनसे चूड़ियाँ सारी, कड़ों से सीखिये रिश्ते निभाने की हुनरदारी....। अगर मिल जाये तो इंसान को इनसे मिला, मुहब्बत-इंसानियत-दोस्ती-वफादारी....'



Lighting the lamp Shri Niraj and Urmilesh Shankkhader

Kavyabela

Shri Som Thakur

Pradeep Chaubey and Nandalal Pathak

Audience enjoying

हास्य व्यंग्य के मैनाक पर्वत कहे जाने वाले कवि प्रदीप चौबे ने श्रोताओं को देर तक गुदगुदाया, हँसाया। उनकी हास्यमय पंक्तियाँ, ''के.जी. टू का बच्चा था, उसके नाजुक कंधों पर टू के.जी. का बस्ता था.....'­ ''वस्ल की रात चरका दिया उसने, बातों में टरका दिया उसने......''

काव्य समारोह का संचालन कर रहे, कवि डॉ. शिवओम 'अम्बर' ने गाँव के दर्द को कुछ यूँ बयाँ किया - ''धूल-धक्कड़ हो, धुऑं हो - धुंध हो बेशक वहाँ, मेरा अपना गाँव फिर भी मेरा अपना गाँव है..........''
सुमधुर गीतकार कवि सोम ठाकुर ने गज़ल पढ़ी 'उजली सुबह के नाम पर धोखे हमें बेहद मिले, संकल्प कब पर्वत हुए, कब लोग आदमकद मिले......'

प्रो. नन्दलाल पाठक ने कवि की वेदना व्यक्त करते हुए कहा - ''शायरी खुदकुशी का धंधा है लाश अपनी है अपना कंधा है.......आईना बेचता फिरा शायर, उस नगर में जो नगर अंधा है......''

'शब्दम्' अध्यक्ष श्रीमती किरण बजाज ने अपनी अनुभूति पूर्ण काव्यांजलि प्रस्तुत की '...... उनके कहने से हम अपनी हँसी न छीनेंगे, न अपने गम का हिसाब उनसे पूछेंगे, न जायेंगे उनके तट पर, न हाथ बढ़ायेंगे, अपनी नैया हम खुद डूबने से बचायेंगे......'

अन्त में कवि 'नीरज' को पूर्ण मनोयोग से सुना गया। '....इतने बदनाम हुए हम इस जमाने में, तुमको सदियाँ लग जायेंगी हमें भुलाने में.....' सुनकर श्रोताओं को वास्तव में यथार्थ की अनुभूति हुई। उनकी कालजयी रचनाओं जैसे '...कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे......' आदि के साथ इस काव्य बेला का स्मरणीय समापन हुआ।

काव्य बेला में पढ़ी गयी रचनाओं के कुछ अंश


अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इन्सान को इन्सान बनाया जाए।
जिसकी खुशबू से महक जाए पड़ोसी का भी घर।
फूल इस किस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

- गोपाल दास 'नीरज'

कोई दीवाना होठों तक जब अमरित घट ले आया।
काल बली बोला मैंने तुझसे बहुतेरे देखे हैं।
पर्वत, सागर, बिजली, बादल गर्जन-गुंजन मिले जुले।
'सोम' कभी क्या तूने निराला बाल बिखेरे देखे हैं।

- सोम ठाकुर

वो घटाएँ, वो फुहारें, वो कनक भूल गये,
बच्चे बारिश में नहाने की ललक भूल गये।
ओस कुछ ऐसी पड़ी अब के बरस धरती पर,
लॉन के फूल भी सब अपनी महक भूल गये।

- डा. उर्मिलेश

अग्नि के गर्भ में पला होगा, शब्द जो श्लोक में ढला होगा।
दृग मिले कालिदास के उसको, अश्रु उसका शकुन्तला होगा।
दर्प ही दर्प हो गया है वो, दर्पनों ने उसे छला होगा।
भाल कर्पूरगौर हो बेशक, गीत का कंठ साँवला होगा॥

- शिवओम 'अम्बर'

तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है,
कि जैसे याद की खुशबू किसी हिचकी से आती है।
ये माना आदमी में फूल जैसे रंग हैं लेकिन,
'कुँअर' तहज़ीब की खुशबू मुहब्बत ही से आती है।

- डा. कुँअर 'बेचैन'

बच्चों का मन होता है उपजाऊ मिट्टी की तरह,
बीज क्या बोओगे इसमें बागवां सोचो जरा।
बदले युग में आदमी का बदला-बदला दिल-दिमाग,
कौन सुनता है पुरानी दास्ताँ सोचो जरा।
जिन्दगी ताजा हवा और धूप की मोहताज है,
बन्द करके बैठे हो क्यों खिड़कियाँ सोचो जरा।
जब बनाने वाला सबका एक है फिर फर्क क्यूँ,
आदमी और आदमी के दरम्यां सोचो जरा।

- कवि एवं सांसद उदयप्रताप सिंह

सपने सजा रहा था कि यौवन गुज़र गया।
जागा तो देखता हूँ कि जीवन गुज़र गया॥
कल तितलियाँ दिखीं तो मेरे हाथ बढ़ गये।
मुझको गुमान था मेरा बचपन गुज़र गया॥
मल्हार के सुर कंठ से फूटे भी नहीं थे।
मुश्किल से मिले साज़ कि सावन गुज़र गया।
मन में छिपी हुई है हवस कीर्ति की अभी।
हाँ कामिनी गुज़र गई, कंचन गुज़र गया।

- प्रो. नन्दलाल पाठक

प्रस्तुत है प्रदीप चौबे की ग़ज़लों के चन्द शेर -

कुछ समारोह समाचार के मुहताज़ रहे
कुछ गले हैं जो महज हार के मुहताज़ रहे
और हैं जो तेरे रुखसार के मुहताज़ रहे
हम तो बस यार, तेरे प्यार के मुहताज़ रहे

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