पुस्तक चर्चा

कार्यक्रम विषय : पुस्तक चर्चा ‘फिर हरी होगी धरा’ पर विचार गोष्ठी (लेखक-प्रो. नंदलाल पाठक)

दिनांक : 22 जुलाई 2018

स्थान : हिन्द लैम्प्स परिसर शिकोहाबाद।

शब्दम् संस्था के तत्वावधान में रविवार को हिन्दलैम्प्स परिसर स्थित संस्कृति भवन में समकालीन कविता के महत्वपूर्ण कवि और महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रो. नन्दलाल पाठक के काव्य संग्रह ‘फिर हरी होगी धरा’ पर समीक्षा एंव गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें नगर के साहित्यकारों और गणमान्य पाठकों ने भाग लिया।

कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पूर्व स्वर्गीय कवि गोपालदास नीरज को शब्दम् संस्था द्वारा श्रद्धाजंलि अर्पित की गई और दो मिनट का मौन रखा गया तत्पश्चात् सरस्वती पूजन के साथ पुस्तक चर्च का कार्य आरम्भ हुआ। पुस्तक चर्चा से पूर्व प्रो. नन्दलाल पाठक का साहित्यिक परिचय प्रस्तुत किया गया। इसके बाद शब्दम् अध्यक्ष श्रीमती किरण बजाज द्वारा प्रेषित की गई ‘फिर हरी होगी धरा’ पुस्तक की समीक्षा डाॅ. महेश आलोक द्वारा प्रस्तुत की गई। किरण बजाज जी का मानना है कि पाठक जी की कविता में मानवतावाद, अध्यात्मिकता और गीता का संदेश मौलिक और आधुनिक रूप में स्पष्ट दिखायी देते हैं। उदाहरणार्थ-

देव का देवत्व दानव की दनुजता
आदमी के आचरण की देन है।

श्रीमती बजाज पाठक जी के काव्य में आतंकवाद और पड़ोसी देश के छल कपट को भी रेखांकित करती हैं-

‘ये क्या मज़ाक है चमन को जो भी चाहे लूट ले? चमन के साथ जो भी चाहे जिस तरह की छूट ले? उड़ा उड़ा सा रंग है, उदास है कली, कली शहीद की है ख्ूान, बूँद-बूँद का हिसाब दे।’

कवि धर्म के नाम पर हो रहे अधर्म पर भी कटाक्ष करता है-

‘मेरे भगवान तेरे नाम पर ‘तू तू मैं मैं। तू ही बतला कि तुझे कैसे पुकारा जाए? देवताओं को मिले छूट अब इंसान बनें, उनको आकाश से धरती पर उतारा जाए।’

शब्दम् वरिष्ठ सदस्य श्री मंजर-उल वासै ने पुस्तक चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि यह पुस्तक मानवीय संवेदनाओं का दस्तावेज है। राष्ट्रीय एकता और सर्वधर्म समभाव विषयक रचनाएं पाठक को सोचने पर विवश करती हैं। कवि मिलावट को रेखांकित करते हुए कहता है-

मिलावट आसुओं में मुस्कराहट में मिलावट मौन में मिलावट जो पुजारी के समूचे आचरण में है।

डाॅ. चन्द्रवीर जैन ने पुस्तक पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि पाठक जी हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू-फ़ारसी के शब्द तो स्वीकार करते हैं परन्तु उन्हें हिन्दी के व्याकरण के अनुसार प्रयोग करना चाहते हैं। डाॅ. जैन ने इस पुस्कत की भूमिका का जिक्र करते हुए महत्वपूर्ण बिन्दुओं को रेखांकित किया। उन्होंने संग्रह की पहली कविता का जिक्र करते हुए उसके सौदंर्य का वर्णन किया-

टूट गया यदि कवि धीरज, सांस समय की घुट जाएगी। कवि को यदि आ गयी नींद, तो असली पूंजी लुट जाएगी।।

डाॅ. जैन ने पाठक जी की अनेक कविताओं, ग़ज़लों के उदाहरण देते हुए काव्य की विषय वस्तु पर प्रकाश डाला साथही कला पक्ष को विस्तार से रेखांकित किया। डाॅ. जैन के अनुसार पाठक जी की रचनाओं में तत्सम्, तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुहावरों का सार्थक ढ़ग से प्रयोग किया गया है। भाषा सरल, सुबोध और सजग है। भाषा में रवानी है। यही कारण है कि पाठक जी समस्त रचनाएं गेय हैं।

डाॅ. महेश आलोक ने समकालीन कविता में प्रो. नन्दलाल पाठक के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि नन्दलाल पाठक की ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा में अनूठी हैं। हिन्दी ग़ज़लों में वह उर्दू और फारसी के व्याकरण को स्वीकार नहीं करते। ग़ज़ल के माध्यम से पाठक जी युवाओं में जोश भरते हुए कहते हैं-

रूका है जल रवानी की जरूरत है नदी को आज पानी की जरूरत है मुखौटे पहनकर आए लुटेरे फिर बहुत ही सावधानी की जरूरत है

अरविन्द तिवारी ने समकालीन कविता के विषय की व्याख्या करते हुए बताया कि इस संग्रह की कविताएं मानवीय रिश्तों में खोयी हुयी ऊष्मा खोजने का प्रयास है। आज की कविता बताती है कि चीजें उतनी सपाट नहीं होतीं जितनी दिखायी देती हैं। आज की कविता मनुष्य की खोज का साधन है, जगदीश्वर की खोज का नहीं है। कविता उम्मीद का ही दूसरा नाम है। जब सारी उम्मीदें खत्म हो जाती हैं तब कविता की उम्मीद का जन्म होता है। पाठक जी की कविताओं में बहुत ज्यादा बिम्ब भले ही न हों किंन्तु विन्यास और लयात्मकता देखते ही बनती है। ‘आग जलती रहे, आग जलती रहे’ मैं कवि कहता है-

बुझ गयी तो अंधेरा निगल जाएगा । जगमगाता नजारा बदल जाएगा। इसलिए आग सीने में पलती रहे।

तीब्र गति से घटती जा रही संवेदनशीलता के दौर में पाठक जी की ग़ज़लें हमे आस्वस्थ करती हैं। इनकी अधिकांश ग़ज़लें शिल्प की कसौटी पर खरी उतरती हैं। मनुष्य को आगाह करते हुए पाठक जी कहते हैं-

भक्त ऐसे है तो भगवान को अब खतरा है। ये है ईमान तो ईमान को अब खतरा है।

अरविन्द तिवारी ने पाठक जी के मुक्तकों को महत्वपूर्ण बताते हुए उनके विशेषताओं को भी रेखांकित किया-

वे गलत थे इसलिए तुम थे सही। और तुमसे भी हुयी गलती वही। या फिर मैं दूध का जला हूं, तू दूध की धुली है। मिलती है कथा मेरी, कुछ तेरी कहानी से।

सभी वक्ताओं ने प्रो. नन्दलाल पाठक की कविताओं के उदाहरण देते हुए अपनी बात रखी। इस समीक्षा चर्चा में डाॅ. टी.एन. यादव ने कहा कि हे प्रेमचन्द्र नामक कविता में काव्य का सौदंर्य देखते बनता है-

पीड़ा की गाथा को रोचकता दी तुमने। मिट्टी की खुशबू को मोहकता दी तुमने।

महेशचन्द्र मिश्रा ने कहा कि वो हारा नहीं है कविता का जिक्र करते हुए कहा कवि निराशा में आशा भरता है-

भले तन से हारा हो, हारा हो धन से। वो हारा नहीं है, जो हारा न मन से।

लक्ष्मीनारायण यादव ने कहा कि पाठक जी की ग़ज़लों में विद्रूप्ता का भी चित्रण हुआ है-

बेसुरेपन का प्रदर्शन चल रहा है। फट रहे कान, गायन चल रहा है।

अनिल जैन उदित ने भावपक्ष और कलापक्ष की व्यापक समीक्षा की। भाषा की विशेषताएं बताते हुए उसकी सीमाओं का भी जिक्र किया।

ओमप्रकाश बेबरिया, उदयवीर शर्मा एवं अजय मिश्रा, ने भी अपने विचार रखे। गहमा-गहमी से युक्त इस महत्वपूर्ण विचार गोष्ठी का सफल संचालन डाॅ. महेश आलोक ने किया। अंत में अरविन्द तिवारी ने सभी उपस्थित साहित्य प्रेमियों का शब्दम् की ओर से आभार प्रकट किया और डाॅ. महेश आलोक के संचालन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। शब्दम् की अध्यक्षा के प्रति भी आभार प्रकट किया।

फोटो परिचय-

पुस्तक चर्चा ‘फिर हरी होगी धरा’ पर विचार गोष्ठी में उपस्थित साहित्य प्रेमी।

समूह छायांकन।

परिचय प्रो- नन्दलाल पाठक

जन्म -3 जुलाई 1929, औरिहार, गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश

• अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, सोफ़ाया महाविद्यालय (1953-89)

• स्नातकोत्तर प्रध्यापक, मुंबई विश्वविद्यालय (1959-89)

• ‘कारा (CARA) Conference on Asian Religions and Arts के सदस्य के रूप में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के अधिवेशनों में सक्रिय योगदान।

• अध्यक्ष, महाराष्ट्र प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन।

• सांस्कृतिक संस्था ‘शब्दम्’के न्यासी संस्थापक एवं उपाध्यक्ष।

• ‘महाभारत कथा’ ‘मैं दिल्ली हूँ’ ‘माॅ शक्ति’ ‘विष्णु पुराण’ इत्यादि टी-वी- श्रृंखलाओं के साहित्यिक सलाहकार।

कविता-संग्रहः ‘धूप की छाँह’(1975) अपने युग का भावात्मक प्रतिबिम्ब है।

हिन्दी ग़ज़ल-संग्रहः ‘जहाँ पतझर नहीं होता’ हिन्दी ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को व्यवस्था की ओर ले जाने का प्रयास है. ताकि हिन्दी ग़ज़ल ‘हिन्दी’ भी हो और ग़ज़ल भी।

भगवद्गीता-आधुनिक दृष्टिः भगवद्गीता का उसके रचनाकाल के ऐतिहासिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक धरातल पर एक नवीन अध्ययन है।

प्रस्तुत कविता-संग्रहः ‘फिर हरी होगी धरा’आज की हिन्दी कविता के तीन आयामों कविता, ग़ज़ल और मुक्तक का सम्मिलित रूप है, जिसमें देश और काल के ह्रदय की धड़कन समाविष्ट है।


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