दुष्यन्त स्मृति हिन्दी ग़ज़ल समारोह का आयोजन

शब्दम्‌ ने हिन्दी सप्ताह के अर्न्तगत दुष्यन्त हिन्दी ग़ज़ल समारोह का आयोजन दिनांक 16 सितम्बर 06 को उ0प्र0 हिन्दी संस्थान लखनऊ ज्ञानदीप स्कूल के संयुक्त तत्वावधान में किया।

इसके प्रथम सत्र में उ0प्र0 हिन्दी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष एवं समारोह के मुख्य अतिथि सोम ठाकुर, विद्यालय की निदेषिका डा0 रजनी यादव, अषोक रावत एवं अन्य ग़ज़लकारों ने सरस्वती की मूर्ति एवं दुष्यन्त कुमार के चित्र पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्जवलन कर समारोह का शुभारम्भ किया।

शास्त्री नित्यगोपाल कटारे ने सरस्वती वन्दना की। अषोक रावत ने दुष्यन्त के जीवन और लेखन पर प्रकाष डाला। ग़ज़लकार श्री कमलेष भट्‌ट ‘कमल' ने कहा कि दुष्यन्त कुमार ने हिन्दी ग़ज़ल को मुहावरों जैसी पहचान दी है। संसद से सड़क तक उनके शेर मुहावरों की तरह उद्‌धृत किये जाते हैं। संसद का कोई भी सत्र दुष्यन्त के शेरों के उद्धरण के बिना पूरा नहीं होता है। उनकी ग़ज़लें संवेदना के जिस स्तर पर पहुंच कर यथार्थ से टकाराती हैं वहाँ शब्दों में अर्थ का विस्फोट सा होता है जो पाठकों को अपने साथ बहुत गहाराई से जोड़ लेता है। वर्तमान में हिन्दी में लगभग 400—500 रचनाकार सृजनरत हैं। जो दुष्यन्त कुमार से उनकी रचनाधर्मिता से ऊर्जा ग्रहण करते हैं।

डा सुबोध दुबे ने दुष्यन्त के अन्तरंग संस्मरण सुनाये। विनोद सोनकिया ने दुष्यन्त की ग़ज़लों में से शेरों को उद्‌धृत करते हुए उनकी प्रासंगिकता एवं बाद के रचनाकारों पर पड़ने वाले प्रभाव को स्पष्ट किया।

प्रथम सत्र के अन्त में अध्यक्षीय भाषण करते हुए सोम ठाकुर ने कहा कि ‘‘जब किसी आन्दोलन के रूप में कोई प्रवृत्ति साहित्य में जन्म लेती है, उसके पुरोधा के नाम से युग का निर्माण होता है। इसीलिए जब अंग्रेजों के साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ अपने नाटकों के माध्यम से भारतेन्दु ने शंखनाद किया तो वह ‘‘भारतेन्दु युग'' कहलाया। जब संस्कृत निष्ठ पदावली पर बल देते हुए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने समाज सुधार के लिए साहित्य का दायित्व माना तो ‘द्विवेदी युग' का नाम दिया गया। इसी प्रकार दुष्यन्त कुमार ने इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आपातकाल की अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों के खिलाफ आवाज उठायी और ग़ज़लकारों का एक बहुत बड़ा समूह उनके संवेदन को अनुगुंजित करने लगा और आज तक कर रहा है, अतः इस युग को ‘दुष्यन्त युग' कहा जाना चाहिए। दुष्यन्त कुमार युग प्रवर्तक रचनाकार थे। तत्‌पश्चात्‌ संजीव गौतम ने दुष्यन्त कुमार की दो चुनी हुयी ग़ज़लों का पाठ किया।

द्वितीय सत्र की प्रथम प्रस्तुति के रूप में मनोज यादव ने ‘‘बहुत जरूरी होता है पर सब कुछ प्यार नहीं होता'' गीत प—सजय़ा। डा0 रजनी यादव ने अपने बचपन की स्मृतियों को ताजा करते हुए ‘‘पगलाये मन भटका—ंउचयभटका घूमे गांव में, कैसे जीते हैं नौनिहाल सूखे छांव में'' का वाचन किया।

श्रीमती भावना तिवारी ने मन की कोमल भावनाओं को चित्रित करते हुए दो ग़ज़लें ‘‘मीत कैसी कसक मुझको तुम दे गये......... तेरी सांसों से मेरा लगन हो गया।'' और ‘‘अधरों से छन्द मिल जाने दो, स्वासों में बन्ध घुल जाने दो...... फिर आज प्रणय हो जाने दो।'' पढ़ीं। युवा ग़ज़लकार संजीव गौतम ने ‘‘सबको कमियाँ हैं पता फिर भी हैं सब मौन, केवल इतनी बात है पहले बोले कौन?'' आदि दोहे पढ़े। विनोद सौनकिया ने अपनी ग़ज़ल ‘‘बाहर—बाहर शोर बहुत है......... भीतर मन कमजोर बहुत है.... आदम—आदमखोर बहुत है।'' पढ़ी। कमलेष भट्‌ट कमल ने अपनी हाइकू कविता ‘‘समुद्र नहीं परछाईं, खुद की लाघों तो जानें, कहाँ हो कृष्ण, अत्र तत्र सर्वत्र कंस ही कंस'' तथा डा0 जगदीष व्योम ने मातृषक्ति को समर्पित अपनी गजल ‘मां वेदों की मूल चेतना, मां गीता का वाणी सी.............. मां धरती की हरी धूप सी, मां केसर की क्यारी सी' प्रस्तुत की। वहीं नासिर अली नदीम ने ‘काम कभी दिन में ऐसा करो कि रात में नींद चैन से आ सके' पढ़ा तो लोगों ने इसे बहुत पसन्द किया।

ग़ज़ल के सषक्त हस्ताक्षर जमुना प्रसाद उपाध्याय ने ‘तुम्हारी पोल पट्‌टी खोलने लग जाये तो क्या होगा? अगर मन्दिर की मूरत बोलने लग जाये तो क्या होगा?....... वहीं सरयू का पानी खौलने लग जाये तो क्या होगा? साम्प्रदायिक सद्‌भाव पर अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत की। ओम प्रकाष नदीम ने दुष्यन्त को समर्पित एक ग़ज़ल ‘मजलूम का जलाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल, खुद हाथ खुद मषाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल...... हिन्दी में बेमिसाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल' प्रस्तुत कर श्रोताओं का दिल जीता।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे अषोक रावत ने ‘‘भले ही उम्र भर कच्चे मकानों में रहे, हमारे हौसले तो आसमानों में रहे'' पढ़कर जीवन की सार्थक बातें प्रस्तुत कीं। शास्त्री नित्य गोपाल कटारे ने गणपति को समर्पित अपनी रचना ‘गणपति बप्पा एैयो, रिद्धि सिद्धि लैयो' तथा संस्कृत का एक लोकगीत ‘हे सखि! पतिगृह गमनम्‌ प्रथम सुखदमपि किच्वित्‌ दृष्टम्‌ वलि' प्रस्तुत किया। श्री सोम ठाकुर ने अपनी एक वाचिक कविता ‘‘‘‘मेरी बात चलाने पर भी कहीं नहीं चलती, अब लोग कहाँ कहते हैं बाबा के किस्से'' तथा एक राग भावगीत ‘‘एक क्षण तुम्हारे ही मीठे सन्दर्भ का, सारा दिन गीत—गीत हो चला।'' प्रस्तुत कर लोगों का मन मोह लिया।

इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रताप दीक्षित ने अपनी ग़ज़ल ‘‘सत्तर पृष्ठों की पुस्तक है, पृष्ठ अधिकतर कोरे हैं, जो भी लिखे हुए हैं उनमें पढ़ने लायक थोड़े हैं......... हमने किसी और के कपड़े धोकर नहीं निचोड़े हैं।'' ‘‘किसी का कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है, बसा घर किसी का उजाड़ा नहीं है।'' आदि ग़ज़लें पढ़ीं।

Dushyant Gazal Samarohअन्त में डा0 रजनी यादव ने सबके प्रति आभार प्रकट किया तथा उपजिलाधिकारी श्री रामऔतार रमन, डा0 सुबोध दुबे एवं डा0 रजनी यादव ने समस्त अतिथियों को ज्ञानदीप परिवार की ओर से स्मृति चिन्ह भेंट किये। विचार व्यक्त करते हुए विनोद सौनकिया एवं मंचासीन ग़ज़लकार डा0 जगदीष व्योम, संजीव गौतम, प्रताप दीक्षित, ओम प्रकाष ‘नदीम', नासिर अली ‘नदीम', सोम ठाकुर, कमलेष भट्‌ट ‘कमल', भावना तिवारी, नित्य गोपाल कटारे, जमुना प्रसाद उपाध्याय एवं अषोक रावत

दुष्यन्त स्मृति समारेाह में पढ़ी गयी ग़ज़लों के कुछ अंष :—

नदी के घाट पर भी यदि सियासी लोग बस जाएं। तो प्यासे होंठ एक—एक बूंद पानी को तरस जाएं। गनीमत है कि मौसम पर हुकूमत चल नहीं सकती। नहीं तो सारे बादल इनके खेतों में बरस जाएं।

— जमुना प्रसाद उपाध्याय

दीन के नाम पर घर जलाए कोई बेगुनाहों पे पत्थर चलाए कोई इक धर्म है, इक तरफ आदमी कौन किसके लिए है, बताए कोई।

— नासिर अली ‘नदीम'

मज़्लूम का जलाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ख़्ाुद हाथ खुद मषाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल जिनको जवाब देना है संसद के सामने उनके लिए सवाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल।

— ओमप्रकाष ‘नदीम

सबको कमियाँ हैं पता फिर भी सब हैं मौन। केवल इतनी बात है पहले बोले कौन?

— संजीव गौतम,

यौवन संयम की सीमा में यौवन कहलाता है। इस सीमा को पार किया तो मिट्‌टी हो जाता है।

— प्रताप दीक्षित

आगछन्तु नर्मदा तीरे कल कल कलिलं प्रवहति सलिलमु कुरू आचमनं सु नीरे ।।

— शास्त्री नित्य गोपाल कटारे

सालों साल रहे जिनके संग, बंधन झूठा निकला। टूटे स्वर सांसों के, जीवन—दर्षन झूठा निकला।। अधरों में छंद मिल जाने दो, स्वासों में बंध घुल जाने दो मेरी पीड़ा में आज प्राण निज दर्द विलय हो जाने दो फिर आज प्रणय हो जाने दो फिर आज प्रणय हो जाने दो।

— भावना तिवारी

अगर दीवार ही उठनी है तो शीषे की हो भाई उधर भी रौषनी जाए इधर भी रौषनी आए।।

— कमलेष भट्‌ट कमल

माँ कबीर की साखी जैसी तुलसी की चौपाई सी माँ मीरा की पदावली सी माँ है ललित रूबाई सी।

— डा0 जगदीष व्योम

जिसको अपना पता नहीं होता उसका कोई खुदा नहीं होता।

— वी0के0 सौनकिया

एक दिन मजबूरियाँ अपनी गिना देगा मुझे। जानता हूँ वो कहाँ जाकर दगा देगा मुझे। वो दिया हूँ मैं जिसे आंधी बुझाएगी जरूर। पर यहाँ कोई न कोई फिर जला देगा मुझे।।

— अषोक रावत

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