'पावस काव्य संध्या'
दिनांक 4 अगस्त 2005 को हिन्द लैम्प्स परिसर स्थित 'कल्पतरु' में 'पावस काव्य संध्या' का आयोजन किया गया। इसमें समस्यापूर्ति कार्यक्रम भी रखा गया।
'शब्दम्' की अध्यक्षा श्रीमती किरण बजाज ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में रचनाकारों का आह्वान किया कि 'हिन्दी के प्रति आम जनों में उत्पन्न हो रही हीनभावना को दूर करें और भावी पीढ़ी को हिन्दी साहित्य के साथ जोड़ें। भाषा ही संस्कार जगाती है, भाषा ही संवेदना पैदा करती है, इसलिए ज़रूरी है कि हम सभी हिन्दी साहित्य से जुड़ें।' समस्या पूर्ति के अन्तर्गत उन्होंने अपनी कविता पढ़कर समस्या पूर्ति के शीर्षक ''श्याम सुनहरे मेघ तुम्हारे, ऑंगन नया सजाते हैं'' को पूर्ण किया।
समस्या पूर्ति :-
यह एक प्राचीन साहित्यिक विधा है जिसमें किसी छन्द में कविता के दिये गये शब्द अथवा वाक्य को उसके पूर्व अथवा पश्चात् सार्थक शब्दों की योजना करके नये छन्द का निर्माण किया जाता है। इसमें कवि की काव्य प्रतिभा का प्रमाण मिलता है। हिन्दी काव्य को पुन: लोकप्रिय करने के लिए 'शब्दम्' समय-समय पर समस्या पूर्ति का आयोजन करता रहता है।
पावस काव्य संध्या में दी गयी समस्या ''श्रीमती किरण बजाज की प्रस्तुत कविता 'शून्य' से ली गयी थी......''
''गगन, तुम कहाँ हो शून्य?
दिन में धूप, रात को चंदा,
विहगों का है साथ भोर से
साँझ ढले तारों के झुरमुट
श्याम सुनहरेमेघ तुम्हारे
ऑंगन नया सजाते हैं।
बूँद-बूँद भरकर तुमको,
स्वर्गिक सुषमा दे जाते हैं।''
तत्पश्चात् पं. विजय चतुर्वेदी ने 'बन जाते अवरोध कभी जब, उग्र रुप धर अब आते हैं, कितनी जाने लेकर जाते, क्या हिसाब रख पाते हैं, उजड़े घर सड़कों पर पानी, फिर हम कैसे कह पायेंगे, श्याम सुनहरे ऑंगन नया सजाते हैं।' पढ़ा।वहीं श्री प्रशान्त उपाध्याय ने समस्या पूर्ति के अन्तर्गत 'मन के कोने का सूनापन फिर कोई बांटने लगा, टूटा सा बटन उम्र की कमीज का जाने क्यों टांकने लगा, हाँ ऐसा ही होता है अक्सर जब दिन पावस के आते हैं, श्याम सुनहरे मेघ तुम्हारे ऑंगन नया सजाते हैं' प्रस्तुत की। डा. ध्रुवेन्द्र भदौरिया ने समस्या पूर्ति में अपनी रचना 'बलदाऊ वन वृक्ष धरा पर छत्र रुप तन जाते हैं, मनसुख जैसे मन के बादल श्याम सखा बन जाते हैं, राधा जैसी चपला का मुख गरज-गरज चमकाते हैं, श्याम सुनहरे मेघ तुम्हारे ऑंगन नया सजाते हैं' पढ़कर खूब वाहवाही लूटी। चर्चित कवि नारायण दास 'निर्झर' ने समस्यापूर्ति के अन्तर्गत अपनी चार रचनायें प्रस्तुत कीं। जिनमें से एक थी- 'तुम क्यों आते नहीं, तुम्हारे स्वप्न हमें नित आते हैं, श्याम तुम्हारी विरह व्यथा में ब्रजजन सब अकुलाते हैं ऑंगन रोज़ रंगोली पूरुँ गीत सजाऊँ देहरी पर, श्याम सुनहरे मेघ तुम्हारे ऑंगन नया सजाते हैं'।
श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी ने समस्या पूर्ति के अन्तर्गत 'नभ के अधर धरा को छूने बादल बनकर आते हैं, तृप्ति प्यास के हवन कुंड में, मोती से झर जाते हैं, पंचरत्न के पूजा घर में बिजली फूल चढ़ाने को, श्याम सुनहरे मेघ तुम्हारे ऑंगन नया सजाते हैं।' की सरस प्रस्तुति करके वातावरण को काव्य सुगन्ध से भर दिया।
पावस काव्य संध्या का शुभारम्भ युवा कवि श्री विवेक यादव के सरस्वती वन्दना ''हे माँ शारदे, हे माँ शारदे, हे वीणावादिनी माँ, तू सदविचार दे।'' से हुआ। उन्होंने पावस पर अपनी कविता ''सावन की रिमझिम, मस्त हुआ मन मयूर, झूम-झूम के घटा छाने लगी है।'' पढ़ी। जहाँ प्रशान्त उपाध्याय ने पावस पर अपनी रचना 'साजिशॉं की बाढ़ ढहा कर ले गयी, मेरे अस्तित्व के मकान की कच्ची दीवारें' को प्रस्तुत किया। वहीं श्री विष्णु स्वरुप मिश्रा ने 'मछली-मछली कितना पानी, जितनी कीमत उतना पानी, पानी की अनमोल कहानी' को सुनाया तो पानी और मेघ के सौन्दर्य की गहराइयों को छुआ।
डा. ध्रुवेन्द्र भदौरिया ने अपने पावस के दोहे 'मेघ महल में लेट कर, रवि करता आराम, शून्य शराबी हो गया, टकराता है जाम.... ज्येष्ठ मास तपती रही धरती बन अंगार, वर्षा के वरदान सी पड़ने लगी फुहार' प्रस्तुत किया तो सावन की फुहारों जैसा श्रोताओं को आनन्द आया। चर्चित कवि नारायण दास 'निर्झर' ने अपने पावस गीत 'झुरमुटों में भागती हिरणी सरीखी धूप और पीछे भागती बादल चढ़ी बरसात' को प्रस्तुत किया।
तत्पश्चात् विशिष्ट कवि के रुप में पधारे हिन्दी के सुप्रसिद्ध गीतकार श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी ने अपनी पावसीय रचनाओं ''ऑंगन में बरसें मल्हारें, कजरी गाने लगीं फुहारें, बन्दनवार आरती गाये,.............बिना पिया के कैसे लगते तू क्या जाने मन।'' 'तुम किरण बनकर मेरे भुवन में रहो, मैं पवन बनकर पहरा लगाता रहूँ' आदि का पाठ कर श्रोताओं को तृप्त किया। उनकी आज की चर्चित रचना ''ये लड़कियों के हाथ में रुमाल से बादल......... कमाल है, कमाल है, कमाल दर कमाल है।'' के साथ इस पावसीय काव्य संध्या का समापन हुआ।
श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी की काव्य रचना का एक अंश -
'नीची घाटी ऊँचे पर्वत ऊपर नील गगन।
बिना प्रिया के कैसे लागे, तू क्या जाने मन।
ऑंगन में बरसें मल्हारें, कजरी आये खोल किवारे।
तन के घाट उमर का पानी, पानी में फिसलन
चलती हवा उझकती खिड़की, उड़ती गंध मराल सी।
छप्पर की औलाती छेदें, छाती हल के फाल सी।
बूँदों के लहरे पे कैसे, खुल जाये तुरपन।
बिना प्रिया के कैसे लागे, तू क्या जाने मन।