कार्यक्रम- काव्य पाठ
दिनांक- 27 अगस्त 2019
स्थान- संस्कृति भवन, हिन्द लेम्प्स परिसर, शिकोहाबाद।
आमंत्रित कविगण- आलोक ‘अर्श’, रवीन्द्र रंजन] एस-एस-यादव। कातिलों की जेब में मुंसिफों के पते मिल रहे हैं..............
शब्दम् का परिचय एवं कार्यक्रम का विषय प्रवर्तन करते हुए डाॅ. धु्रवेन्द्र भदौरिया ने कहा कि आज यह शुभवसर है कि आज हम तीन श्रेष्ठ कवियों का काव्यपाठ सुनने को एकत्रित हुए हैं।
काव्यपाठ का प्रारम्भ करते हुए कवि आलोक अर्श ने अपनी गज़ल प्रस्तुत करते हुए कहा
‘प्यार का हर निशान रख लेगा, दिल ये जाद महान रख लेगा। घर के भेदी से क्या छुपाओगे.
छुपके बातों पर कान रख लेगा। उन्होंने अपना दूसरा शेर पढते हुए कहा कि ‘उलझने खुद की बढाने में लगा है शायद] हर काई होड़ लगाने में लगा है शायद] मेरी औकात दिखाने की कोई कोशिश में खुद की औकात दिखान में लगा है शायद....’’ शेर ने लोगों को तालियां बजाने पर मजबूर कर दिया।
कवि रवीन्द्र रंजन ने मातृशक्ति को समर्पित अपनी कविता का काव्य पाठ करते हुए कहा ‘उम्र भर का प्यार क्यों नापाक हो गया] रिश्ता जला निकाह का क्यों खाक हो गया] बेटी गज़ल का बेवजाह तलाक हो गया] बेटी खुदा का नूर है इबादत से कम नहीं] जन्नत का कोई हूर है इनायत से कम नहीं] बेटियों के आंसुओं को शायरों ने पढ़ लिया] बेटी किसी कुरान की आयत से कम नहीं।’ कविता को सुनकर सभागार में तालियों की गड़गड़ाहट गंूजने लगी। श्रोताओं ने उनके गीत ‘आज मंदिर में मदिरा पुजारी पिये/इसलिए बुझ गए आरती दिए.... की दिल खोलकर सराहना की।
कवि एस-एस- यादव ने काव्यपाठ करते हुए कहा ‘मैं इसको क्या समझूं अपनी शौहरत या उसकी साजिश। कायदा अपना अपना] फायदा अपना अपना। बहस अपनी अपनी] कानून अपना अपना] कोई खुले आम खरीद रहा कोई बेच रहा है। इन्साफ के बुरे शगुन मिल रहे हैं कातिलों की जेब में मुसिफों के पते मिल रहे हैं। यहां चोरियां बहुत होती हैं और बेखोफ घूमते हैं लुटेरे पता करो आसपास कहीं पुलिस चैकी या थाना होगा। न इधर हूॅ में न उधर हूॅ मुझको मालूम नहीं किधर हूॅ मैं......
इस काव्यपाठ का सफल संचालन डाॅ धु्रर्वेन्द्र भदौरिया ने किया। अंत में धन्यवाद अरविन्द तिवारी ने दिया। इस अवसर पर सलाहकार समिति के वरिष्ठ सदस्य मंजर-उल वासै] महेश आलोक] डाॅ चन्द्रवीर जैन एवं लक्ष्मीनारायण यादव] रामप्रकाश तिवारी] डा. टी-एन- यादव] डाॅ अरिवन्द यादव] रामसेबक यादव] खेतपाल सिंह यादव] निर्दोष कुमार] आर-सी-गुप्ता] आलोक भदौरिया] मीनू गुप्ता] सीमा भदौरिया] आर-क-े कुलश्रेष्ठ] विनीत वसंत] अरूण कुमार शर्मा सहित अनेक श्रोता उपस्थित रहे।
फोटो केप्सन
काव्य पाठ करते हुए कवि आलोक अर्श ।
काव्य पाठ करते कवि रविन्द्र रंजन।
काव्य पाठ करते कवि एस-एस- यादव।
सभागार का दृश्य।
आमंत्रित श्रोतागण।
परिचय- रवीन्द्र रंजन
67 वर्षीय गीतकार रवीन्द्र रंजन] अपने छात्र जीवन से ही रचनाधर्मी रहे। मनोविज्ञान और हिंदी साहित्य विषयों में परास्नातक रवीन्द्र जी के गीतों में साहित्यिकता एवं मानव मन की अतल गहराई को स्पर्श करने का दुर्लभ साहस है । साहित्य जगत में आपकी रचना धर्मिता की पहचान उनके द्वारा रचित पोथियों की संख्या से नहीं वरन् ढाई आखर की गुणवत्ता से है। दशाधिक सम्मानों एवं पुरस्कारों से आप सुशोभित हो चुके हैं और यह क्रम अभी जारी है । कोई अपनी मात्र एक कविता से( (टॉमस ग्रे गोर-ए-गरीबाँ Elegy written in a Country Churchyard) तो कोई अपनी मात्र एक कहानी से ( चंद्रधर-शर्मा गुलेरी-- उसने कहा था) साहित्य के इतिहास में अपना नाम अंकित करा लेते हैं] तो रवीन्द्र रंजन अपने एक गीत से देश भर के मंचों पर छा जाते हैं-- मंदिर में मदिरा पुजारी पिये] इसलिए बुझ गये आरती के दिये ।
‘शब्दम्’ परिवार आपके समृद्ध, स्वस्थ] सुदीर्घ सुजीवन की सुकामना करता है ।
गीत- 1
आज मंदिर में मदिरा पुजारी पिये इसलिए बुझ गये आरती के दिये।। कैसी थी भावना बन गई वासना आदमी वेष में ये छिपे भेडिये इसलिये बुझ गये आरती के दिये - 1 खूब शोषण किया खुद का पोषण किया अभी कितने गरल और मीरा पिये इसलिये बुझ गये आरती के दिये- 2 हम शिकारी कहें या पुजारी कहें जाल में फांसकर प्राण ही के लिये इसलिये बुझ गये आरती के दिये- 3
गीत - 2
अग्नि परीक्षा गीतों की है राख नही हो पायेंगे जितने ज्यादा और अपेंगे वे कुन्दन हो जायेंगे।। मैं पीड़ा की क्यारी में गीतों के सुमन उगाता हूँ गीतों के स्वर गिरवी रखकर खुद मकरन्द लुटाता हूँ दुनियाँ वाले पागलपन की सम्बोधन करते हैं फिर भी सत्य् शिव सुन्दरम के गीत सुनाता हूॅ कालजयी इस पीड़ा ने गीतों के माथे तिलक किये आंसू अघ्र्य चढायेंगे तो वे चन्दन हो जायेंगे जितने ज्यादा और और........................................। येागी जैसा है मन मेरा गीत मेरे सन्यासी है राम लखन और सीता जैसे गीत मेरे वनवासी हैं गीतों में सन्देश भरे है अपनी वेद ऋचाओं के गीत हमारे उतने पावन जितने मथुरा काशी हैं वंशी की धुन में जब कोई कान्हा गीता सुनाये गीतों की वस्ती के कण कण वृन्दावन हो जायेंगे जितने ज्यादा और ............................................2 पीड़ा के मन्दिर जाकर गीतों से वन्दन करता हूँ करूणा की सामग्री लेकर नित्य हवन करता हूँ शौर्य दीप से करूं आरती गीतों से मैं वार करूँ अपने गीतो को सरहद के नाम समर्पण करता हूँ भारत माँ के आॅचल को जब कोई दुश्मन खींचे उस दिन मेरे गीत स्वयं भी जन गण मन हो जायेंगे जितने ज्यादा और.....................................3
आलोक भदौरिया ‘अर्श’
आलोक ‘अर्श’ साहब रातों रात शाइर बनने वालों में नहीं हैं । उन्होंने शाइर बनने में फर्श से अर्श तक का सफर किया है] नर्म जुल्फों से सर्द आहों तक का सफर किया है। आपको बशीर बद्र] बेकल उत्साही] कृष्ण बिहारी ‘नूर’ वगैरह जैसे शाइरों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। ये और इन जैसे शाइर ऐसे हैं जो जहाँ से गुजर जाते हैं] अपनी खुशबू का एहसास छोड़ जाते हैं और फिर आलोक ‘अर्श’ उन और उन जैसों की मिली-जुली खुशबू और उस एहसास से अछूते कैसे रह जाते ?
गज़ल लिखने और पढ़ने वाले अनगिनत होते हैं] लेकिन तगज्जुल (गजलीयत) विरलों में होता है -- जो आलोक अर्श की गजलों के लिखने में और उससे भी जियादा पढ़ने में है गो कि वे तरन्नुम में नहीं] तहत में पढ़ते हैं। गजल लेखन और पाठन के लिए बीसों सम्मान और पुरस्कार उनके हिस्से में आये हैं दो राज्यपालों ने उन्हें सम्मानित किया है, क्यों कि वे वाणिज्य परास्नातक हैं।
‘शब्दम्’ परिवार आपके समृद्ध] स्वस्थ] सुदीर्घ] सुजीवन की सुकामना करता है ।
ग़ज़ल- 1
उलझनें खुद की बढ़ाने में लगा है शायद हर कोई होड़ लगाने में लगा है शायद मछलियाँ चाल पुरानी तो समझ बैठी हैं वो नया जाल बिछाने में लगा है शायद
ग़ज़ल- 2
वक्त के साथ ही किरदार बदल जाते हैं दिल के रिश्ते भी कभी यार बदल जाते हैं ज़ख़्म दिल का तो ये सदियों से हरा है लोगो बस कि हर बार ही बीमार बदल जाते हैं। रह के इस पार जो करते हैं इधर की बातें जा के वो लोग ही उस पार बदल जाते हैं।
सुरेश सिंह यादव
64 वर्षीय, अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक, और विधिस्नातक, उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा से सेवानिवृत्त, सुरेश सिंह यादव साहब, सदैव शहर के अंदेशे से दुबले रहे, आखि़र क़ाज़ी
(न्यायधीश/नगर मजिस्ट्रेट) जो ठहरे। वे समाज और देश की दशा और दिशा को कभी अनदेखा नहीं कर पाये । उनकी रचनाधर्मिता में सिर्फ कल्पना या भाव संवेग नहीं बहुत कुछ भोगे] देखे] सुने को समझने का प्रयास शामिल है। निजी तौर पर मानते हैं कि जदीद (वर्तमान) अर्थ प्रधान युग में आदमी आदमी से छिटका हुआ है। सामूहिक सोच की बुनियादें जड़ें खो रही हैं। संवेदनाओं की अनुभूति का अभाव और सहिष्णुता की जमीन का सिकुड़ना जीवन की अत्यंत अवांछित घटना है। अनगिनत सम्मानों और पुरस्कारों से सुशोभित यादव साहब] अनेक काव्य कृतियों के रचयिता के रूप में एक वास्तविक साहित्यकार के रूप में उभरे और कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । आज भी साहित्यिक पत्रकारिता से सक्रिय रूप से जुड़े हैं ।
‘शब्दम्’ परिवार आपके समृद्ध] स्वस्थ] सुदीर्घ] सुजीवन की सुकामना करता है ।
गीत- 1
न ज्ञानपीठ के लिए न किसी आंदोलन के लिए न पूरब के विरोध के लिए न पश्चिम के समर्थन के लिए न शोहरत की तमन्ना के लिए न सिले की जुस्तजू के लिए। मैं लिखता हूं कुछ सवालों के जवाब के लिए वे सवाल जिन्होंने मेरा सुख चैन छीना है । समय और समाज तैयार नहीं है उत्तर देने के लिए । मैं बताना चाहता हूं एहसास और यथार्थ का वह घर्षण जिसने चिंगारी पैदा की है मेरे अंदर लिखने के लिए । मैं शब्दों के पत्थर एहसास के महा समंदर में पूरी ताकत से फेकता हूं संवाद की लहरें उठाने के लिए । क्योंकि आदमी से आदमी का संवाद जरूरी है दिलो-दिमाग में बैठे संशय से मिटाने के लिए मैं अच्छी तरह जानता हूं मेरे लिखने से कोई मीनार नहीं खड़ी होगी मगर सोचता भी हूं शायद काम आ जाए किसी बुनियाद के लिए । मैं लिखता हूं न ज्ञानपीठ के लिए न किसी आंदोलन के लिए मैं लिखता हूं आदमी से आदमी के संवाद के लिए।
गीत- 2
इधर हूं मैं और न उधर हूं मैं मुझको मालूम नहीं किधर हूं मैं । मेरी जरूरतें सवाल करती है मुझसे जिधर सब हैं क्यों नहीं उधर हूं मैं । न तट बंध हूं और न मंझधार हूँ भवर मैं फंसी एक भंवर हूं मैं । जिसे अफवाह कह कर बदनाम किया हकीकत की वो सच्ची खबर है मैं। बेगानगी के आलम में खुद परस्तों के बीच इक अदद हबीब तलाशती नजर हूँ मैं उगती है हर रोज एक नई कराह के साथ वक्त की बदनसीब वो सहर हूँ मैं । किसी को रास नहीं आता इधर से गुजरना हाईवे के दौर में वो इक पुरानी डगर हूँ मैं न मंजिल की खुशी न तजर्बे का सुकून वो इक अधूरी दास्ताने सफर हूँ मैं धूल समझ कर न कुचलना मुझको राख के ढेर में दफन इक शरर हूँ मैं मेरी फितरत को लाचारी समझना नहीं शीशे से पत्थर तोड़ने वाला बशर हूँ मैं